नानक के मीठे बोल दबे-कुचले लोगों का पक्ष लेते हैं


ललितपुर [जनकल्याण मेल]
श्रीगुरुनानकदेव के प्रकाशोत्सव पर्व की पूर्व सन्ध्या पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि सदियों से जात-पांत से उत्पन्न ऊँच-नीच की सामंतीय चट्टान के नीचे जनसाधारण की सहृदयता और प्रेम का जो जल सिमट रहा था, वह मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के समय संतों की वाणी में अचानक फूट पड़ा और समरसता से सारे देश को रससिक्त करता चला गया।

इस भक्ति-सागर की सबसे बड़ी हिलोर गुरुनानकदेव ने अपनी देशव्यापी यात्राओं के अलावा विदेशों में मक्का-मदीना, बगदाद, तुर्किस्तान, काबुल, तिब्बत, काठमाण्डू, येरुसलम, समरकंद आदि देशों में जाकर लगभग 38 हजार मील की यात्राएं करके संदेश दिया कि मानवप्रेम की भाषा सर्वत्र एक सी है। मनुष्य के सुख-दुख भी एक से हैं। इसलिए क्यों न सभी का एक ही सांझा-चूल्हा क्यों न हो? आदिगुरु ने अपनी रहमदिल मिठास से सभी सुनने वालों का मनमोहित कर लिया। नानात्व में छिटके और बंटे लोगों को प्रेम की डोर में बांध लिया। उनके शबद भौगोलिक बंधनों को तोड़कर सात समुद्र पार फैलते चले गए। मुरझाये चेहरों पर लालिमा की नई चमक बढ़ती चली गई। उनका युग राजनीतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक और आर्थिक संकट का युग था। लोग ऊपरी आडम्बर को ही धर्म समझने लगे थे। अतार्किक रूढिय़ों, धर्मान्धता की गिरफ्त में फंस रहे थे। गुरुग्रन्थ साहब की मल्हार की बार श्लोक में उन्होंने कहा है कि राजे-महाराजे सिंह के समान हिंसक और चौधरी लोग कुत्ते के समान लालची हो गए हैं। तंत्र के नौकर-चाकर अपने तीखे नाखूनों से घाव करके लोगों का खून चूस रहे हैं । उन्होंने कलयुग को काती और राजाओं को कसाई कहा और माना कि वास्तविक धर्म पंख फैलाकर कहीं उड़ गया है। ऐसे कुसमय में झूठ और फरेब की काली अमावस्या को चीरते हुए गुरु नानकदेव प्रखर सूर्य और शीतल चंद्रमा की तरह उदित हुए। वस्तुत: कितनी रातों से निचोड़ा है उजाला तुमने, रात की कब्र पर बुनियादे सहर (सुबह) रक्खा है। उनकी शिक्षाओं का निचोड़ है जो उनकी जपुजी साहिब रचना में सन्निहित है। सत्य ही ईश्वर है, और ईश्वर ही सत्य है, न किसी से डरो, न किसी को डराओ। गुरु नानकदेव कहते हैं कि आई पंथी सगल जमाती, मनि जीतै जगु जीतु।