चंदेरी पगड़ियां और साड़ियां राजघरानों की पहली पसंद
शुध्द सोना-चांदी की जरी का उपयोग होता था चंदेरी पगड़़ी में
जनकल्याण मेल
चंदेरी - किसी के सिर पर पगड़ी बांधना या फिर स्वयं के सिर पर पगड़ी बंधवाना कैसा अनुभव है, इन तथ्यों से हम सब भली-भांति परिचित है। पगड़ी मात्र एक परिधान, पोशाक अथवा लिवास नहीं, इंसान, समाज, गांव, शहर, राज्य और देश की पहचान के साथ-साथ उसमें संस्कृति मर्यादा और औचित्य समाहित भी रहता है। वही दूसरी ओर पगड़ी एक तहजीब, सभ्यता, अदब, नजाकत की निशानी भी है। आज भी भारत के विभिन्न भागों में अनेक प्रकार की टोपियां, पगड़ियां, साफा का चलन आम है। राजस्थानी- राजपूताना पगड़ी की अपनी एक अलग कहानी प्रतिष्ठा और संस्कृति है। पंजाब सिख समुदाय में पगड़ी विश्वव्यापी पहचान है।
पगड़ी के बारे में जितना भी विश्लेषण किया जावे कम है। अतएव अपने दिलों- दिमाग से ऐसे-वैसे खयालों को दूर रखते हुए, यहां पर हमारा मकसद विशुद्ध रूप से सदियों पूर्व से लेकर वर्तमान में भी प्रसिद्ध हथकरघा पर हुनरमंद बुनकरों द्वारा निर्मित चन्देरी पगड़ी के माध्यम से स्थानीय लोक संस्कृति एवं हमारे गौरवमय हस्तशिल्प कला, सांस्कृतिक विरासत को साझा करना है।
क्योंकि चंदेरी हस्तशिल्प कला का अतीत सीधे-सीधे यह जता रहा है कि जिस प्रकार वर्तमान में चंदेरी साड़ी का जलवा सब दूर बिखरा हुआ है। ठीक इसी प्रकार एक समय चंदेरी पगड़ी का जलवा सब दूर बिखरा हुआ था। आलम यह था कि ग्वालियर, बुन्देलखण्ड़, इंदौर सहित संपूर्ण मालवा धार, देवास, अमरावती, नागपुर, कोल्हापुर, बड़ौदा, मराठा आदि क्षेत्र में राजपरिवार, राजदरबार चंदेरी पगड़ी की पसंदगी उपरांत जबरदस्त मांग लोकप्रियता का पैमाना रहा है। बताया जाता है कि पूर्व काल में एक स्थानीय व्यापारीजन ने इंदौर में एक दुकान मात्र चंदेरी पगड़ी एवं साफा के लिए संचालित की थी जिसे ग्राहकों से बेहतरीन प्रतिसाद ही प्राप्त नहीं हुआ था अपितु वह दूर-दूर तक प्रसिद्ध भी हुई थी। अतः हमारा खुले दिल से यह मानना है कि चंदेरी में निर्मित होने वाली पगड़ी पूर्व काल में ही नहीं वरन वर्तमान काल में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए चंदेरी वस्त्र हस्तशिल्प कला का ही नहीं हमारी अमूल्य विरासत का एक अभिन्न अंग है।
भले नगर में आज हाथकरघा पर पगड़ी का निर्माण उत्पादन कम किया जा रहा हो। बावजूद इसके आज भी चन्देरी पगड़ी की मांग बदस्तूर जारी है। उसके चाहने वाले एक नहीं अनेक है, कुछ राज परिवार तो ऐसे हैं जो आज भी चंदेरी पगड़ी आर्डर के माध्यम से क्रय कर विभिन्न शुभ अवसरों पर अपने सिर पर धारण करके दिलों के अरमानों को पूरा करते हुए चंदेरी पगड़ी प्रेम को प्रदर्शित कर रहे हैं। खुशी की बात यह है कि आज भी नगर में चुनिंदा साड़ी व्यापारी चुनिंदा बुनकरों के माध्यम से पगड़ी का निर्माण कराकर विरासत चंदेरी को जीवित रखे हुए हैं।
लेकिन यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि राजशाही दौर में चंदेरी निर्मित पगड़ी की अपनी एक अलग पहचान कायम थी। जिस प्रकार आज चंदेरी साड़ी से चंदेरी की पहचान है ठीक इसी प्रकार राजशाही दौर में चंदेरी साड़ी के अलावा चंदेरी पगड़ी से भी चंदेरी की पहचान हुआ करती थी, साथ ही मांग बराबर रहने के कारण उत्पादन निरंतर जारी रहता था। किसी जमाने में सारे भारत में मशहूर चमक-दमक वाली चन्देरी पगड़ी नामक लंबा-चौड़ा सीधा-साधा कशीदाकारीयुक्त कपड़ा क्या अजब- गजब रहा होगा जो हर किसी को चंदेरी हस्तशिल्प कला के गुणगान-तराने गुनगुनाने को विवश करता होगा।
14वीं सदी में नगर में जन्में हस्तशिल्प कला ने हाथकरघा के माध्यम से मलमली रूपी कपड़े से अपनी कहानी को लिखना प्रारंभ किया। 15वीं सदी के आते-आते नगर में मलमल के अलावा पगड़ी का उत्पादन किया जाने लगा। चूंकि पगड़ी की बुनाई उच्च स्तरीय के अलावा कशीदाकारीयुक्त शुध्द सोना-चांदी की जरी का उपयोग, कुल मिला कर साधारण वर्ग की पहुंच के बाहर होकर अधिकतर राजघरानों में उपयोग की जा रही थी। लेकिन जानकारी यह भी मिलती है कि साधारण बुनाई से तैयार होने वाली पगड़ी सस्ती होने के कारण उसका उपयोग साधारण एवं मध्यम वर्ग के सिर की शोभा बढ़ाने में हुआ करता था।
चन्देरी पगड़ी का उपयोग अधिकांशतया: भारत में राज कर रहे राज परिवारों एवं राज्य में अति विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किया जाता था। इसका अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि चंदेरी पगड़ी मात्र राजा महाराजाओं के सिर तक सीमित थी। बल्कि चंदेरी पगड़ी कई समाजों में सर्वश्रेष्ठ सम्मान की प्रतीक भी हुआ करती थी। यानि किसी समाज द्वारा यदि किसी व्यक्ति का सम्मान किया जाता था यही चंदेरी पगड़ी सम्मानित व्यक्ति के सिर की शोभा बढ़ाती थी।
याद रखना होगा कि चन्देरी पगड़ी पूर्व काल से वर्तमान तक सिंधिया राजवंश के अलावा भारत के विभिन्न हिस्सों के राजवंश सहित विशेषकर होल्कर, बड़ौदा, कोल्हापुर, राजवंशो में सम्मान प्राप्त करने की अधिकारी रही है। सिंधिया, बड़ौदा राजघराने में चंदेरी निर्मित पगड़ी को बेहद पसंद किया गया। बताया यह भी जाता है कि स्वयं महाराजा शिवाजीराव गायकवाड ने सारी जिंदगी चंदेरी निर्मित पगड़ी अपने सिर पर बांधी।
चंदेरी निर्मित 100 फुट और 200 फुट लंबी पगड़ी दोनों और कसीदे के किनारों सहित भी वजन में हल्की होती थी जो पगड़ी की विशेषताओं में शुमार था। आज भी 51 मीटर के अलावा 200 फुट लंबी पगड़ी असली जरी का उपयोग कर निर्मित की जा रही है, सबसे बड़ी बात यह है कि वह विक्रय भी हो रही है। आज नगर में आयोजित होने वाले सामाजिक धार्मिक और राजनीतिक आदि समारोह में चंदेरी निर्मित साफा बांधकर सम्मान करने का प्रचलन कायम है। नगर के प्रमुख साड़ी व्यापारी, कुशल बुनकरों द्वारा पगड़ी का उत्पादन कराकर चंदेरी की कभी शान रही पगड़ी को जीवित रखे हुए हैं।
हमारा महान देश भारत विशाल देशों की श्रेणी में शुमार है। इतने बड़े देश में चंदेरी पगड़ी के अभी भी चाहने वाले एवं उसे पहचानने वाले देश के विभिन्न हिस्सों में एक नहीं कई दीवाने मौजूद हैं। जो चंदेरी पगड़ी क्रय कर अपनी इच्छाओं, अपने अरमानों की पूर्ति कर रहे हैं। आज चंदेरी साड़ी सब दूर प्रसिद्ध है बावजूद इसके एक जमाने में प्रसिद्ध रही चंदेरी पगड़ी स्थानीय साड़ी व्यापारीजन के हाजिर स्टांक में उपलब्ध होकर चंदेरी के नाम, मान- सम्मान को आगे बढ़ा रही है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समय परिवर्तनशील है। आज फैशन का दौर है, नित्य नए नए परिधान बाजार में आ रहे हैं। अतएव कौन जाने कब, किस समय, किस का समय बदल जावें। कौन जाने कब फैशन बदल जावें, कौन जाने कब पगड़ी के अच्छे दिन आ जावें और कौन जाने कब पगड़ी का चलन आम हो जावे, अथवा कौन जाने कब चंदेरी पगड़ी अपना खोया हुआ मर्तबा हासिल कर लें। सब मिलाकर चंदेरी के गौरवशाली अतीत के साथ स्थानीय हस्तशिल्प कला की साक्षी चंदेरी पगड़ी को हमारा प्यार भरा राम - राम और सलाम ।
जय हिन्द जय भारत
*चंदेरी पर्यटन- सुखद स्मृति*
*आइये एक दिन तो गुजारिए चंदेरी में*...
भवदीय
मजीद खां पठान (सदस्य)
जिला पर्यटन संवर्धन परिषद
चंदेरी , मध्य प्रदेश