राजेश बादल
आंग सान सू ची का ताज़ा बयान हैरत में डालने वाला है । भारत के लिए यह बेहद गंभीर है । उन्होंने कहा कि कुछ देश मानव अधिकार, जातीयता और धर्म के बहाने दूसरे देशों के मामलों में हस्तक्षेप करना चाहते हैं । म्यांमार उन्हें कहना चाहता है कि अब वह ऐसे किसी दख़ल को मंज़ूर नहीं करेगा । सूू ची ने चीनी राष्ट्रपति शी ज़िंग पिंग के साथ 33 समझौतों पर दस्तख़त करने के बाद यह बात कही ।उन्होंने भारत का नाम लिए बिना साफ़ कर दिया कि म्यांमार बदल चुका है । वह पिछलग्गू पड़ोसी नहीं रहा है और भविष्य में भारत के हितों की रक्षा करने की गारंटी नहीं लेने वाला है ।म्यांमार की इस सर्वोच्च ताकतवर नेत्री ने ख़ास तौर पर रेखांकित किया कि उनका देश हमेशा चीन के साथ खड़ा रहेगा ।बीते दिनों अमेरिका ने म्यांमार के सेनाध्यक्ष पर रोहिंग्या बवाल के बाद पाबंदी लगा दी थी । म्यांमार ने साफ़ कर दिया कि वह ऐसे प्रतिबंधों के आगे झुकने वाला नहीं है।वह चीन का उपकार नहीं भूल सकता।इस मसले पर चीन चट्टान की तरह म्यांमार के साथ खड़ा रहा है । इतना ही नहीं,चीन ने इसी मुद्दे पर बांग्ला देश के साथ समझौता भी कराया।भारत इस मामले में ठगा सा देखता रहा।
असल में आंग सान सू ची कुछ बरस से भारत के साथ अपने मुल्क को असहज पा रही हैं ।हिन्दुस्तानी फ़ौज ने वहां सर्जिकल स्ट्राइक के ज़रिए आतंकवादी ठिकानों को नष्ट किया था।सेना और भारतीय राज नेताओं ने इस पर जिस तरह अपने गाल बजाए,उसने म्यांमार को आहत किया । इसके बाद रोहिंग्या मसले पर मदद के लिए उसने सबसे पहले भारत की ओर ताका । इसका कारण था कि भारत बांग्लादेश और अमेरिका पर भी दबाव डालने की स्थिति में था। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी उसे हमसे समर्थन की उम्मीद थी । पर ऐसा नहीं हुआ।भारत के राजनयिक और कूटनीतिक प्रयास नाकाम रहे । भारत अपनी ही अंदरूनी समस्याओं पर ध्यान देता रहा ।ये समस्याएं ख़ुद भारत ने ही पैदा की थीं ।म्यांमार के लिए यह बड़ा झटका था ।याद करना होगा कि सू ची के लोकतंत्र बहाली आंदोलन को हिंदुस्तान ने ही पाला पोसा था।भारत एक तरह से उनका दूसरा घर है।दिल्ली के लेडी श्रीराम काॅलेज से उन्होंने राजनीतिविज्ञान में स्नातक किया था।वे फर्राटेदार हिंदी बोलती हैं।क्या विडंबना है किअपने देश में लोकतंत्र बहाली के लिए उन्हें जिस लोकतांत्रिक भारत से भरपूर सहयोग मिला,आज उसका दामन छोड़कर वे उस देश के साथ खड़ी हैं, जहां लोकतंत्र स्थाई रूप से सोया हुआ है ।
देखा जाए तो इसमें म्यांमार की गलती नहीं है और न ही यह पहला मामला है । हाल ही में अनेक अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भारतीय विदेश नीति ने जिस तरह व्यवहार किया है, वह चौंकाने वाला है।इससे पहले ईरान ने अमेरिका के साथ तनाव के मद्देनजर भारत से सबसे पहले सहयोग मांगा था ।भारत ने कुछ पहल तो की होगी,मगर उसमें अजीब सा ठंडापन था ।इसी बीच पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ईरान और सऊदी अरब गए । इसके बाद वे अमेरिका जा पहुंचे । पाकिस्तान की इस मसले में
कोई सीधी भूमिका नहीं थी। संभव है कि उसके प्रयास बांझ साबित हों।उसने तो अमेरिका को रिझाने के लिए कोई एक साल तक तालिबान के साथ लगातार खुफिया बैठकें कराईं ।वह अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए सक्रिय प्रयास करता रहा । यह अलग बात है कि ये कोशिशें भी रंग नहीं लाईं ।लेकिन उसे लाभ यह मिला कि अमेरिका ने पाक सेना को प्रशिक्षित करने का करार कर लिया । यह भारत के लिए झटका ही है । ईमानदारी से देखा जाए तो अफ़ग़ान - तालिबान मसले पर भी भारत के व्यवहार में एक सर्द ख़ामोशी है। साथ और बात में हम खुलकर सामने नहीं आते । ठेकेदार की तरह संसद भवन बना देने से आप वहां की अवाम के दिलों में नहीं धड़कने लगते ।
यह भी ध्यान देने की बात है कि सऊदी अरब से ईरान के रिश्ते कभी मधुर नहीं होंगे और पाकिस्तान के सऊदी अरब से संबंधों में कभी कड़वाहट नहीं आएगी । ठीक वैसे ही जैसे भारत और अफगानिस्तान के संबंध कभी खराब नहीं होंगे और पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान कभी सहज नहीं रह पाएगा । समीकरणों के इतने साफ़ होते हुए भी हम विदेशनीति में ऊर्जावान और उत्साह से भरे क्यों नहीं दिखाई देते ।
भारतीय विदेश नीति की विकलांगता और आग लगने पर कुआं खोदने की आदत ने भी बड़ा नुक़सान किया है ।आ बैल मुझे मार की तर्ज़ पर भारत अपने अतीत के दबे प्रेतों को उखाड़ता है और फिर उनसे मुकाबला करने में सारी ऊर्जा और संसाधन झौंक देता है । सारी दुनिया इक्कीसवीं सदी में अपने को आधुनिकतम शक्ल देने में लगी है तो हम गड़े मुर्दे उखाड़ कर आपसी सिर फुटौव्वल में व्यस्त हैं ।एक तरफ विश्व के देश जवान होती नई सदी के संग भाग रहे हैं तो हम इतिहास के दफ़न किस्सों में रस ले रहे हैं ।तमाम देश आर्थिक और सम सामयिक चुनौतियों से लड़ने के लिए आधुनिकतम औज़ार विकसित कर रहे हैं तो हम यह माथापच्ची कर रहे हैं कि बँटवारे के लिए कौन ज़िम्मेदार था। विकसित राष्ट्र चकाचौंध करने वाली मंज़िलें तय कर रहे हैं तो हम सावरकर के स्वतंत्रता संग्राम और उनके माफ़ी नामे पर सियासत का मज़ा ले रहे हैं। पश्चिम और योरप के देश शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि पर ज़ोर दे रहे हैं तो हम साईंबाबा के जन्म स्थान की खोज पर बांहें चढ़ाए बैठे हैं । अपनी नई पीढ़ी को हम कौन सा संदेश दे रहे हैं । न अब विभाजन की कथा इतिहास से मिटाई जा सकती है और न गोडसे-सावरकर , महात्मा गांधी और साईं बाबा अपने अपने सच के साथ पुनःअवतरित हो सकते हैं। फिर हम ऐसा क्यों कर रहे हैं ।
कहीं अनजाने में अपने लोकतंत्र के खिलाफ कोई साज़िश तो नहीं कर बैठे हैं । भारत के मीडिया और प्रचार तंत्र के ज़रिए जब अंधविश्वास और राष्ट्रीय शर्म की प्रतीक कथाएं समंदर पार पहुंचती हैं तो यकीन मानिए कि हमारी छबि बहुत उज्जवल नहीं होती ।