. . आध्यात्म दर्शन . . .
हम अपने जीवन में रहने वाले दोषों को देखें, खुद के दोषों को देखें तो इससे अच्छा और कुछ नहीं। हम खुद के दोषों को देखेंगे तो फिर हम अपने जीवन को दूषित करने से बचा सकेंगे और तभी हम अपने दोषों का शमन और शोधन कर सकेंगे। खुद के दोष देखना एक गुण है और औरों के दोषों को देखना हमारी दुर्बलता। अपने मन से पूछो तुम्हारा चित्त किधर खींचता है, अच्छाई के प्रति या बुराई के प्रति? दोषों के प्रति या गुणों के प्रति? बोलो! मनुष्य की यह एक बड़ी कमजोरी है, उसका चित्त अच्छाई पर कम , बुराई की ओर ज्यादा आकर्षित होता है। हर व्यक्ति दूसरे की कमजोरी की तरफ खींचता है।
संत कहते हैं – 'बुराई देख कर तुम क्या करोगे ? खुद को तो देखो। दोष दर्शन की वृत्ति मनुष्य की एक बहुत बड़ी दुर्बलता है और ऐसा वह ही करते हैं जिनका व्यक्तित्व उथला होता है। जिनका व्यक्तित्व गहरा होता है, उनकी दृष्टि बड़ी पवित्र होती है, वह बुरे से बुरे व्यक्ति में भी उसकी अच्छाई देख लेते हैं और जिनका व्यक्तित्व उथला होता है, वह बड़े अहमन्य, ईर्ष्यालु ,असहिष्णु और अनुदार प्रवृत्ति के लोग होते हैं। उनमें दूसरे की अच्छाई दिखती नहीं। जो खुद को ही अच्छा माने वह दूसरों को कभी अच्छा नहीं मान सकता, वह आत्मश्लाघा से भरा होता है। उसके मन में आत्मप्रशंसा की प्रबल भावना होती है। वह अपने आगे और किसी को देखना ही नहीं चाहता, गिनना ही नहीं चाहता और ऐसे व्यक्ति के सामने जब कोई औरों की प्रशंसा करें तो उसे हजम ही नहीं होता। वह शुरुआत कर देता है औरों की निंदा, आलोचना, उनके दोषों का उद्द्भावन, जो हमारी एक बहुत बड़ी दुर्बलता है। अपने मन को टटोल कर देखो, मेरा ध्यान जब किसी पर जाता है तो उसकी अच्छाइयों पर जाता है या बुराइयों पर, अगर अच्छाइयों पर जाता है तो तुम्हारे जीवन की राह सही है और बुराइयों पर जाता है तो तुम्हारी राह गलत है। यह हमें तय करना है की हमारा ध्यान किधर जा रहा है। मन को पलट कर देखो जिससे प्रेम होता है उसकी बुराई नहीं दिखती और जिससे द्वेष होता है उसकी अच्छाई नहीं दिखती। यह अनुभव है .? जिससे प्रेम होता है उसकी बुराई नहीं दिखती और जिससे द्वेष होता है उसकी अच्छाई नहीं दिखती और थोड़ा सा अपने भीतर झांक कर देखो तुम्हारे लिए क्या दिखता है ? बुराई दिखती है, दोष दिखते है या अच्छाई दिखती है, गुण दिखते है, इससे तुम्हारे संबंधों की वास्तविकता प्रकट होगी। अगर बुराई अधिक दिख रही है तो समझ लेना मेरे सम्बन्ध द्वेषपूर्ण है और अच्छाइयाँ दिख रही है तो तुम्हारे सम्बन्ध प्रेमपूर्ण है। लोगों के प्रेमपूर्ण संबंध नहीं होते ऐसा कहना तो ठीक नहीं है लेकिन प्रेमपूर्ण संबंध अत्यंत सीमित होते हैं और द्वेषपूर्ण, दुर्भावना युक्त संबंध अतिव्यापी होते है। इस द्वेषपूर्ण संबंध को बढ़ाने का मूल कारण अपने आप को ही सर्वस्व समझना, आत्मप्रशंसा की भूमिका में जीना, ऐसा व्यक्ति दूसरों की बढ़ाई को कभी देख नहीं सकता। संत कहते है – 'इस दुर्वृत्ति से बाहर आओ, दूसरों के दोष देखने की जगह उनकी अच्छाई देखो उसके लिए तुम्हें अपनी सोच अच्छी रखनी होगी । जिसकी अच्छी सोच होगी वह बुराई में अच्छाई देखेंगे और जिनकी सोच खराब होगी उनको अच्छाई में भी बुराई दिखती है। हमारी दृष्टी पर अवलम्बित है।'
श्री कृष्ण चले जा रहे थे उनके साथ और भी लोग थे। एक मरा हुआ कुत्ता था। उसकी बत्तीसी बाहर दिख रही थी सब लोग उस कुत्ते के विभद्र शरीर को देखकर घृणा से भर रहे थे और श्री कृष्ण ने रंच मात्र ग्लानि रखे बिना यह कहा – देखो इस कुत्ते के दांत कितने सुंदर है। यह दृष्टि तुम्हारे भीतर है ? बीभत्स और घिनौनी काया वाले कुत्ते को देख कर के भी उसे अनदेखा करना और उसके दांतो की स्थिर पंक्ति को मूल्यांकन देना, मूल्यांकन करना, मूल्य देना, महत्व देना सबके बस की बात नहीं है। यह उनकी सोच को बताता है। आप कहाँ हो? जैसी तुम्हारी दृष्टि होती है, वैसा ही सब कुछ दिखाई पड़ता है। मेरे अंदर यदि दोष भरे होंगे तो मुझे सब दोषी, पापी, नीच और अधम दिखेंगे और मेरे आंखों में यदि पवित्रता होगी, तो हर प्राणी में मुझे वही पवित्रता दिखाई पड़ेगी। जो कुछ होगा, मेरी दृष्टि में जो है, वही सब कुछ दिखेगा।
देखिए! रामायण की घटना सुनाता हूँ। जब रामायण पूर्ण हो गई, युद्ध पूरा हुआ और अयोध्या में साधुवाद समारोह, उस युद्ध में अपना योगदान देने वाले सभी बड़े-बड़े महारथियों का अभिनंदन समारोह था और उसमे सारे योद्धा अपनी-अपनी अनुभूतियां सुना रहे थे। इसी मध्य हनुमान जी का नंबर आया वे अपने शौर्य और पराक्रम की गाथा बढ़-चढ़कर के सुना रहे थे। बड़े जोश खरोश के साथ और अपनी विवार्ता के क्रम में जब अशोक वाटिका का प्रसंग आया तो उन्होंने अशोक वाटिका का वर्णन किया। क्या वाटिका थी ऐसी वाटिका मैंने धरती पर कहीं नहीं देखी, अद्द्भूत वाटिका थी। उस वाटिका की एक विशेषता थी कि उसमें जितने फूल थे सबके सब लाल ही लाल थे। सारे फूल लाल ही लाल थे। मैंने पूरी वाटिका को तहस-नहस कर दिया। जब हनुमान जी ने कहा कि सारे फूल लाल लाल थे, तो सीताजी ने वही टोकते हुए कहा – हनुमान जी क्या बोलते हो आप तो थोड़े समय के लिए अशोक वाटिका गए मैं तो लंबे समय तक वहाँ रही मुझे तो वहाँ एक भी फूल लाल नहीं दिखा। सब के सब फूल सफेद थे। हनुमान जी ने कहा – माता मैं मिथ्या नहीं कहता सारे फूल लाल थे। मैं कैसे मानू सफेद अपने आँखों देखी बात। सीता जी ने कहा – नहीं हनुमान फूल सफेद थे। मामला उलझ गया। हनुमान जी इस बात पर डटे हैं कि फूल लाल और सीता जी इस बात पर दृढ़ है कि फूल सफेद। रामचंद्र जी को हस्तक्षेप करना पड़ा और कहा – भाइयों, हनुमान उलझो मत। तुम दोनों सही हो। सब अचम्भे में रह गए, प्रभु यह क्या होगा या तो लाल होंगे या सफेद होंगे दोनों सही कैसे? बोले – हनुमान बात ऐसी है कि सीता के मन में बड़ी सात्विकता भरी थी उसकी आँखों में सात्विकता भरी थी इसलिए उसे सारे फूल सफेद दिख रहे थे और तुम बड़े गुस्से में थे तुम्हारी आँखे गुस्से में लाल थी इसलिए सफेद फूल भी तुम्हें लाल दिखाई पड़ रहे थे। कहने का तात्पर्य यह है अगर हमारी आँखे लाल होगी तो सब हमें लाल दिखेगा और आँखे सफेद होगी तो सब हमें सफेद दिखेगा। अब देख लो जो तुम्हें दिख रहा है वह तुम्हारी आँखों के कारण दिख रहा है। तुम्हारी आँखे कैसी है यह तुम्हें देखना है। देखो दोष मत देखो, गुण देखो अपने आपको अच्छाइयों से भरो। दोष देखना है तो अपने देखो औरों के मत देखो। किसी ने बहुत अच्छी
🙏🏼🌹🙏🏼 रचना भार्गव ब्यावरा